''कुछ लोग विकासशील देश में हो रहे अंतरिक्ष क्रियाकलापों पर प्रश्न उठाते हैं। हम आर्थिक रुप से अग्रणी देशों द्वारा चन्द्रमा या अन्य ग्रहों पर किये जा रहे अन्वेषण या प्रक्षेपित मानवयुक्त अन्तरिक्ष उड़ान से प्रतिस्पर्धा करने का स्वप्न नही देख रहे।परन्तु हमे विश्वास है कि यदि हमें राष्ट्रीय स्तर तथा अन्य राष्ट्रों के बीच अर्थपूर्ण भूमिका निभानी है,तो हमें मानव और सामाजिक समस्याओं के समाधान के लिये उन्नत तकनीकों के प्रयोग में किसी से कम नहीं होना होगा।"
- विक्रम साराभाई
आजादी के बाद पण्डित जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में भारत ने आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना के लिये कदम बढ़ाने शुरु कर दिये। उस समय भारत औद्योगिक और वैज्ञानिक क्षेत्र में विकास के लिए प्रयत्नशील था । रुस के स्पूत्निक -1 के प्रक्षेपण के बाद विक्रम साराभाई अंतरिक्ष कार्यक्रम की महत्ता को भारत सरकार को समझाने में सफल रहे ।
1960 के समय भारत के अंतरिक्ष शोध मुख्यत: साउन्डिंग रॉकेट (Sounding Rocket) की सहायता से संपन्न हुए । उसके बाद सन् 1969 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) की स्थापना हुई । सन् 1972 में अंतरिक्ष आयोग (Space Commission) तथा अंतरिक्ष विभाग (Department of Space) का गठन करके भारत सरकार ने अंतरिक्ष शोध कार्यक्रमों को बढ़ावा दिया । उसी वर्ष ISRO को अंतरिक्ष विभाग के अन्तर्गत लाया गया ।
प्रारंभिक दौर में ISRO को कुछ दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि उनके पास आधारभूत संरचनाओं और संसाधनों की कमी थी ।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम की पहली शुरुआत थुम्बा (केरल) में अंतर्राष्ट्रीय प्रक्षेपण स्टेशन बनाकर की गई , जिसे TERLS (Thumba Equatorial Rocket Launching Station) के नाम जाना जाता है। इस जगह को इसकी विषुवत वृत्त (Equator) से निकटता की वजह से चुना गया था।
डॉ. साराभाई युवा अभियंताओं का एक समूह बनाना चाहते थे, जो अमेरिका में प्रशिक्षण प्राप्त कर वापस आकर थुम्बा के रॉकेट प्रक्षेपण स्टेशन में कार्य कर सकें। इसलिए साराभाई स्वेच्छाकर्मियों (volunteers) जो मूल रूप से इंजीनियर हों ,की तलाश में लग गए। इन इंजीनियर्स को NASA में परिचालकों और तकनीकीविदों को दिया जाने वाला प्रशिक्षण दिया गया, जबकि उन्हें बड़े रॉकेट और उपग्रह बनाने की तकनीकों के बारे में प्रशिक्षित नहीं किया गया।
भारत के इस प्रयास में कई बड़े देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी ने मदद की। भारत को आवश्यक उपकरण जैसे कि टेलीमेट्री रिसीवर, ट्रैकिंग प्रणाली और कंप्यूटर प्रदान किये गए, उनमे से कुछ उपहार और कुछ कर्ज स्वरुप दिए गए।
19 अप्रैल 1975 को रुस की निःशुल्क सहायता से भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट एक रुसी प्रक्षेपण यान से सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया। भारत द्वारा निर्मित आर्यभट्ट पूर्णतः वैज्ञानिक शोधों को समर्पित था। तत्कालीन सोवियत संघ ने भारत को तकनीकी सहायता और उपकरण जैसे- सोलर सेल, बैटरी, थर्मल पेंट और रिकॉर्डर प्रदान किये थे।
भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम को U.S.A. और USSR का पूरा पूरा सहयोग मिला।
एक वो समय था जब भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम का नियंत्रण कक्ष एक चर्च में था और प्रक्षेपण यान को साइकिल पर रखकर प्रक्षेपण स्थल तक ले जाया जाता था और आज ISRO 3000 Kg से अधिक वजन के उपग्रह बनाने और प्रक्षेपित में समर्थ है।
आज भारत उपग्रह निर्माण और उनके प्रक्षेपण के क्षेत्र में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है। साथ ही अपने दूर संवेदी उपग्रहों द्वारा चित्रों के वाणिज्यिक उपयोग में सबसे आगे है। आज भारत किसी भी प्रकार के उपग्रहों को बनाने के साथ ही उन्हें सफलतापूर्वक कक्षा में प्रक्षेपित करने वाले प्रक्षेपण यानों जैसे- GSLV, PSLV आदि को भी बनाने में सक्षम है।
एक विकासशील देश के समक्ष आने वाली सभी समस्याओं और आर्थिक चुनौतियों का मजबूती से सामना कर भारत ने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम को एक नई पहचान दी है, जो एक़ अनोखा उदाहरण है। भारत के सेवा क्षेत्र में जो उछाल देखने को मिलती है, उसमें भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रमों का बहुत बड़ा योगदान है।
भारत के पास एक वृहद् प्रक्षेपण प्रणाली है जो कि विश्व के अन्य देशों के उपग्रहों के लिए भी प्रक्षेपण की सुविधा प्रदान कर रही है।
ISRO द्वारा प्रक्षेपित उपग्रह कई प्रकार के होते हैं -
1. सुदूर संवेदन उपग्रह (Remote Sensing Satellite)-
इस उपग्रह का प्रयोग ध्रुवीय कक्षा में उपस्थित उपग्रहों में लगे सेंसर का प्रयोग कर पृथ्वी की सतह एवं वातावरण में जानकारी प्राप्त करने के लिए किया है।
सुदूर संवेदन के प्रकार (Types of Remote Sensing)-
A. प्रकाशीय (ऑप्टिकल) / निष्क्रिय सुदूर संवेदन ( Optical/Passive Remote Sensing )-
इसमें प्रकाशीय सेंसर पृथ्वी से परावर्तित या प्रकीर्णित सौर्यिक विकिरण प्राप्त करते हैं , जो कि अंतरिक्ष से कैमरे से खींची गयी तस्वीर की भांति ही चित्र बनाते हैं। इस सुदूर संवेदन का प्रयोग तब किया जाता है जब सूर्य पृथ्वी को प्रकाशित करता है। यह रात्रि एवं ख़राब मौसम में कार्य नहीं करता है।
B. माइक्रोवेव /सक्रिय सुदूर संवेदन (Microwave/Active Remote Sensing) -
इसमें किसी भी समय या किसी भी मौसम में जानकारी इकठ्ठा करने की क्षमता होती है। इसके उदाहरण हैं- लेज़र फ्लोरोसेंसर तथा सिंथेटिक अपर्चर रडार (SAR)
सुदूर संवेदन के प्रयोग -
a.नागरिक अनुप्रयोग- सूखे की निगरानी हेतु, वनस्पति की स्थिति पर आधारित मूल्यांकन के लिए, बाढ़ प्रवण क्षेत्र के मानचित्रण हेतु एवं बाढ़ से होने वाले नुकसान के मूल्यांकन के लिए, फसल क्षेत्र एवं उत्पादन में आदि।
b.सैन्य अनुप्रयोग - सीमा पार शत्रु सेना की गतिविधिओं पर नजर रखने के लिए, उग्रवादियों की घुसपैठ रोकने हेतु इत्यादि।
राष्ट्रीय सुदूर संवेदी केंद्र देश में सुदूर संवेदन डाटा को प्राप्त करने, प्रसंस्करण करने हेतु एक नोडल एजेंसी है, जो कि हैदराबाद में स्थित है।भारत द्वारा प्रक्षेपित कुछ Remote Sensing Satellites - IRS -1 तथा 2, Oceansat, Resourcesat आदि।
2. इनसैट /संचार उपग्रह प्रणाली -
यह एक संचार उपग्रह श्रृंखला है, जिसकी शुरुआत एप्पल से हुई और एक विशाल उपग्रह समूह के रूप में विकसित हुई। इन उपग्रहों की सहायता से देश की प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक क्षेत्र में सुधार हुआ। जीसैट सहित इनसैट श्रृंखला बहुउद्देशीय प्रणाली है जिसका उपयोग संचार, टेलीविज़न प्रसारण, मौसम विज्ञान, आपदा चेतावनी एवं इसके साथ खोज एवं बचाव कार्यों में किया जाता है।
इसको पृथ्वी की सतह से 36000 km ऊँचाई पर भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया जाता है।
इनसैट प्रणाली ने कम पहुँच वाले क्षेत्रों जैसे- पूर्वोत्तर, अन्य दूरस्थ क्षेत्रो एवं द्वीपों तक पकड़ बनाई है। इस प्रणाली के विकास से डीटीएच, सैटेलाइट, न्यूज़ गैदरिंग, वीसैट, इंटरनेट सेवाओं एवं दूरदर्शन की पहुँच में वृद्धि हुई है। ई -गवर्नेंस के प्रयोग में तेजी से वृद्धि हो रही है।
इस प्रणाली का प्रयोग निम्न क्षेत्रों में किया जाता है-
a.टेलीमेडिसिन
b.टेली-एजुकेशन
c.सेनाओं में
जीपीएस प्रणाली -
इस प्रणाली का उपयोग लगभग हर क्षेत्र में किया जाता है चाहे वह जल या वायु परिवहन प्रणालियाँ हों, चाहे जंगलों का मानचित्रण हो, चाहे भिन्न प्रकार की कृषक गतिविधियां हों। सैन्य गतिविधियों तथा आपदा के समय प्रभावित लोगों की पहचान और मदद करने के लिए भी जीपीएस का प्रयोग किया जाता है।
जीपीएस प्रणाली के प्रयोगों को निम्न पांच भागों में बांटा जा सकता है-
1. स्थान (Location) - किसी भी स्थान का निर्धारण करने में।
2. नौवहन (Navigation) - एक जगह से दूसरी जगह जाने में।
3. ट्रैकिंग (Tracking) - किसी व्यक्ति या वस्तु की निगरानी के लिए।
4. मानचित्रण (Mapping) - किसी विशेष क्षेत्र का मानचित्रण करने में।
5. समय निर्धारण (Timing) - समय का निर्धारण करने में।
जीपीएस का भविष्य में अनुप्रयोग -
रोबोटिक कारों में, अल्ज़ाइमर तथा डिमेंशिया के रोगियों पर निगरानी रखने के लिए आदि।
आई.आर.एन.एस.एस. (IRNSS / NAVIC) -
अमेरिका की ही तरह भारत की भी एक स्वदेशीय क्षेत्रीय नौवहन प्रणाली है, जिसे ISRO द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में किसी व्यक्ति या वस्तु की अवस्थिति की जानकारी प्रदान करने लिए बनाया गया है।
IRNSS भारतीय क्षेत्रों के साथ - साथ इसकी सीमा से 1500 km के क्षेत्र में अपनी सुविधाएँ प्रदान करने में सक्षम है।
इसका लक्ष्य निम्न सेवाएं प्रदान करना है -
1. नागरिक, अनुसन्धान और वाणिज्यिक उपयोग के लिए स्टैण्डर्ड पोजिशनिंग सेवा प्रदान करना।
2.अधिकृत उपयोगकर्ताओं (जैसे सेना आदि ) के लिए प्रतिबंधित सेवा प्रदान करना।
धन्यवाद
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